संजय कुमार
बिहार सरकार ने 2013 में 'गौरैया' को राजकीय पक्षी घोषित किया था और 2014 में इसके संरक्षण को लेकर एक पत्रिका *गौरैया*का प्रकाशन शुरू किया। इसमें पर्यावरण को समेटे विभिन्न विषय को जगह दी जाति रही । 4 जून 18 के दैनिक भास्कर में प्रणय प्रियंवद की प्रकाशित रिपोर्ट से मालूम हुआ कि यह पत्रिका बंद हो गयी।
दुःखद है, पर्यावरण पर सरकारी पत्रिका का बंद होना। दुख इस बात का है कि नाम तो 'गौरैया' था लेकिन विलुप्त होती इस छोटी चिड़िया को जगह कम ही दी गयी ।
20 मार्च विश्व गौरैया दिवस पर, गौरैया पर मैटर के लिए एक शोधकर्ता मेरे पास आये थे। उनके पास गौरैया पत्रिका के कई अंक थे। उन्होंने बताया कि जब मैं पत्रिका के लिए गया तो मुझे कहा गया कि गोदाम से जाकर ले लीजिए ....धूल फांकती पत्रिका को निकाला लेकिन गौरिया पर सामग्री नहीं मिलने से उदास थे,हालाँकि नेट पर बहुत मैटर है लेकिन वे सरकारी पहल और बिहार से जुडी सामग्री खोज रहे थे ।..मेरे पास जितनी जानकारी थी मैंने उन्हें दिया ।
*गौरैया पत्रिका*बंद के कारणों पर मंत्री, प्रधान सचिव व संपादक का बयान भी भाई प्रणय ने रिपोर्ट में दिया है। सबके अपने अपने तर्क थे । मुझे लगता है कि पत्रिका के सम्पादक ने भी खास रूचि नहीं ली । सभवतः गौरैया संरक्षण को देखते हुए हर अंक में इस पर आलेख होना चाहिए था ,जो नहीं दिखा। बिहार और देश में गौरैया संरक्षण पर काम हो रहा है उसे भी दिया जा सकता था। पत्रिका को प्रोफेशनल लुक नहीं दिया गया। जो जरूरी था। क्या क्या छपा और कौन कौन छपे इस पर भी बात होनी चाहिए। लेकिन एक सवाल तो उठता ही है कि गौरैया पत्रिका ने खुद 'गौरैया' को नजरअंदाज क्यों किया ?
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